गुरुवार, 5 मई 2016

भगवान एवं अवतार : अर्थ तथा प्रमाण


भगवान कौन है :

हिंदू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ (चर्वाक को छोड़कर) यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और श्रीमद्भागवत गीता जी में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है।

ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।

॥ ॐ ॥ 
॥ यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति। 
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
अथर्ववेद १०/८/१
भावार्थ: जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

हिंदू दर्शन, पुराण और वेदों में मतभेद ईश्वर के होने या नहीं होने में नहीं है। मतभेद उनके साकार या निराकार, सगुण या निर्गण स्वरूप को लेकर है। फिर भी ईश्वर की सत्ता में सभी विश्‍वास करते हैं। कुछ ईश्वर और उसकी सृष्टि में फर्क करते हैं और कुछ नहीं।

भगवान के लक्षण :
आइये अब चर्चा करते है भगवान के लक्षणों की। क्या लक्षण होते है भगवान के? क्या परिभाषा है भगवान की?
भगवान शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:-

भग+वान = भगवान

भग का अर्थ होता है (दिव्य) गुण और वान का अर्थ होता है धारण करने वाला, इस प्रकार भगवान का अर्थ होता है (दिव्य) गुणों को धारण करने वाला भगवान कहलाता है 'भगोस्ति अस्मिन् इति भगवानः'

किन्तु वे दिव्य गुण क्या है?
इसका उत्तर हमें प्राप्त होता है श्रीविष्णु पुराण में -
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस्य श्रीयः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतिरणा ॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७४
भावार्थ:-
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - ये भगवान के छह लक्षण या दिव्य गुण होते है।

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्द्यते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
भावार्थ:
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म शब्द से अभिहित है, ये ही सभी कारणों का कारण है, परंतु इनका कोई कारण नही है। ये ही सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के सर्वेसर्वा होने के कारण परब्रह्म कहलाते है।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७६ 

भावार्थ :
यह भगवान जैसा महान शब्द सिर्फ परब्रह्म परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त हो सकता है, किसी अन्य के लिए नहीं।


शास्त्रोचित निर्गुण सगुण विचार :

एक तरफ जहाँ भगवान को सगुण कहा जाता है वहीं दूसरी तरफ इन्हें निर्गुण कहा जाता है। शास्त्रों में भगवान को निर्गुण (निर्गुणं, निरञ्जनं) कहा गया है, इसका तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि भगवान में प्रकृति का कोई गुण नही है अन्यथा सगुण श्रुतियों का विरोध होगा। अतः एव, निर्गुण श्रुतियों के अनुसार भगवान के सर्वज्ञ, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आदि गुण बताये गए है -
एष आत्मापहतपाप्मा सत्यकामः सत्यसंकल्प: - छान्दोग्योपनिषद ८/१/५,
यः सर्वज्ञ: सर्ववित् - मुण्डकोपनिषद १/१/९,
सर्ववस्तुनिष्ठ सर्वप्रकारकज्ञानवान्

परंतु भगवान सगुण रूप में अनन्त गुणों से सुशोभित है, ऐसा वर्णन स्वयं भगवती श्रुतियां कर रही है ―
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वभाविकी ज्ञानबलाक्रिया च - श्वेताश्वेतरोपनिषद ६/८,

इसलिए वे प्रकृति-माया के गुणों से रहित होने के कारण 'निर्गुण' तथा स्वाभाविक ज्ञान, बल, क्रिया, वात्सल्य, करुणा, कृपा आदि अनन्त गुणों के आश्रय होने के कारण 'सगुण' भी है।

ऐसे भगवान को ही परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीनारायण, आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

इसलिए वेदवाक्य है कि - " एक सत्य तत्व भगवान को विद्वान विभिन्न प्रकार से कहते है "
 "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति"

भक्त :
भगवान की भक्ति करने वाला भक्त कहलाता है। जैसे भक्त भगवान के दर्शनों के लिए लालायित रहता है, उनसे मिलने जाता है उसी प्रकार भगवान भी भक्तों के दर्शन हेतु जाते है।
जैसे, भक्त ध्रुव जी के दर्शनों के लिए श्रीहरि मधुवन जाते है:-
मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ― श्रीमद्भागवत महापुराण ४/९/१

जैसे भक्त भगवान् की भक्ति करता है उसी तरह भगवान भी अपने भक्तों की भक्ति करते है। शास्त्रों में उन्हें भक्तों की भक्ति करने वाला बताया गया है :-
भगवान भक्तभक्तिमान् ― श्रीमद्भागवत महापुराण १०/८६/५९


अब ध्यान देने योग्य प्रश्न है कि ईश्वर आदि-स्रष्टि में समग्र ज्ञान वेदों के
माध्यम से दे चुके थे तो कौन सी बात की कमी रह गई थी जो बाद में भगवान् को अवतार लेकर पूरी करनी पड़ी ?

अब फिर से एक प्रश्न, अवतार क्या होता है? क्यों होता है? कहाँ है अवतारों का प्रमाण?

अवतार : अर्थ
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण (जन्म लेना) अथवा उतरना ही 'अवतार' कहलाता है। अवतार तत्व का द्योतक प्राचीनतम शब्द 'प्रादुर्भाव' है।
अवतार (धातु 'तृ' एवं उपसर्ग 'अव') शब्द के दो अर्थ होते है-
१. भगवान का अपनी स्वातंत्रय शक्ति के द्वारा भौतिक जगत में मूर्तरूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना ,
२. उतरना अर्थात ऊपर से नीचे आना ।

अतः अवतार शब्द देवों के लिए प्रयुक्त होता है, जो मनुष्य रूप में या पशु के रूप में इस पृथ्वी पर आते (अवतीर्ण होते) हैं और तब तक रहते हैं जब तक कि वह उद्देश्य, जिसे वे लेकर यहाँ आते हैं, पूर्ण नहीं हो जाता।

प्रमाण :
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रमाण्य रूप में सामने आते हैं। ऋग्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भेऽन्तरजायमानो बहुधा विजायते।
भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।

रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश ॥
भावार्थ :
भगवान भक्तों की प्रार्थनानुसार प्रख्यात होने के लिए माया के संयोग से अनेक रूप धारण करते हैं। उनके शत-शतरूप हैं।

अवतार का उद्देश्य :

इस प्रश्न का बहुत ही सुन्दर उत्तर हमें श्रीमद्भागवत गीता जी में प्राप्त होता है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (अध्याय ४, श्लोक ७)
भावार्थ :
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ (अध्याय ४, श्लोक ८)
भावार्थ :
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-धर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।

प्रभु के अवतार लेने संबंधी प्रश्न का प्रमाण गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने श्रीरामचरित मानस जी में भी दिया है ―
जब जब होइ धरम कै हानी। 
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी। 
करहि अनीति जाहि नहि बरनी। 
सीदहि बिप्र धेनु सुर धरनी। 
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। 
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा। 
(श्रीरामचरित मानस, बालकाण्ड १२०.३-४)


उम्मीद करता हूँ कि आप सभी पढ़ने वालो को यह जानकारी अच्छी लगेगी।

नमो राघवाय