शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

भगवत सेवा अपराध

नमो राघवाये,

आज के इस सत्र में हम आपको बताने जा रहे है कुछ सेवा अपराधों के बारे में। सेवा अपराध, वे अपराध होते है जिन्हें हम जाने-अनजाने में एवं भूलवश करते रहते है जिससे हमारी सेवा दूषित हो जाती है एवं हमें यथोचित फल की प्राप्ति नही होती।

श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार,
सेवापराध बत्तीस प्रकार के माने गये हैं —

१- सवारी पर चढक़र अथवा पैरों में खड़ाऊँ पहनकर श्रीभगवान्‌ के मन्दिर में जाना।
२- रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवों का न करना या उनके दर्शन न करना।
३- श्रीमूर्ति के दर्शन करके प्रणाम न करना।
४- अशुचि-अवस्था में दर्शन करना।
५- एक हाथ से प्रणाम करना।
६- परिक्रमा करते समय भगवान्‌ के सामने आकर कुछ न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना।
७- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने पैर पसार कर बैठना।
८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दोनों घुटनों को ऊँचा करके उनको हाथों से लपेटकर बैठ जाना।
९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने सोना।
१०- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने भोजन करना।
११- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने झूठ बोलना।
१२- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना।
१३- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने आपस में बातचीत करना।
१४- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने चिल्लाना।
१५- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने कलह करना।
१६- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी को पीड़ा देना।
१७- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी पर अनुग्रह करना।
१८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी को निष्ठुर वचन बोलना।
१९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने कम्बल से सारा शरीर ढक लेना।
२०- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की निन्दा करना।
२१- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की स्तुति करना।
२२- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने अश्लील शब्द बोलना।
२३- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने अधोवायु का त्याग करना।
२४- शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात् सामान्य उपचारों से भगवान्‌ की सेवा-पूजा करना।
२५- श्रीभगवान्‌ को निवेदित किये बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना।
२६- जिस ऋतु में जो फल हो, उसे सबसे पहले श्रीभगवान्‌ को न चढ़ाना।
२७- किसी शाक या फलादि के अगले भाग को तोडक़र भगवान्‌ के व्यञ्जनादि के लिये देना।
२८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह को पीठ देकर बैठना।
२९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे किसी को भी प्रणाम करना।
३०- गुरुदेव की अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्र और उनका स्तवन न करना।
३१- अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना।
३२- किसी भी देवता की निन्दा करना।

इस प्रकार,
इन सेवा अपराधों से बचकर हम सहजता से भगवत्कृपा प्राप्त कर सकते है।

आपका मित्र
अधम शिरोमणि

सोमवार, 12 नवंबर 2018

अनमोल वचन

“अनमोल वचन”
(श्रीमत् स्वामी श्रीनिगमानन्द सरस्वती परमहंसदेवजी)

१. किसी भी चीज का अपव्यय करने का नाम पाप है – चाहे वह धन हो, शरीर हो या धर्म हो । सद्व्यवहार धर्म और अपव्यवहार पाप है ।

२. चोर के साथ रहकर चोर बनना जितना आसान है, साधु के साथ रहकर साधु बनना उतना आसान नहीं है । 
जैसे ऊपर से नीचे आना आसान है, पर नीचे से ऊपर जाने के लिये काफी प्रयत्न करने होंगे, तभी कहीं ऊपर उठाना सम्भव होगा ।

३. जो व्यक्ति दूसरों की निन्दा करता है, वह स्वयं भी कभी अच्छा आदमी नहीं है ।

४. घर-बार छोड़ने का नाम त्याग नहीं है, आसक्ति के त्याग को ही ज्ञानी जन त्याग कहते हैं ।

५. आहार के साथ धर्म का सम्बन्ध है, क्योंकि शरीर और आत्मा एक साथ हैं । आहार सावधानीपूर्वक नहीं करने से धर्म नष्ट होता है ।

                    


६. सुख शरीर के किसी अंग-विशेष पर प्रकाशित होता है, जबकि आनन्द पूरे शरीर में व्याप्त होकर प्रकाशित होता है । सुख और आनन्द में यही अन्तर है ।

७. साधना और भजन में व्यस्त रहकर जगत् की उपेक्षा करना धर्म नहीं है । दयामय ईश्वर के प्रेम के आदर्श पर यदि जगत् के जीवों से प्रेम किया जा सकता है, तो वही सच्चा धर्म है । संसार का त्याग करना धर्म नहीं है, आत्मत्याग ही धर्म है ।

८. किसी दूसरे में दोष दिखाई देने पर अपनी ओर दृष्टि डालकर देखो, तुममें भी वह दोष है अथवा नहीं ।

९. चरित्र को सुधारा जा सकता है, परंतु स्वभाव में परिवर्तन होना बड़ा ही कठिन है; क्योंकि स्वभाव का अर्थ है स्व-भाव । यह जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का फल है ।

१०. यदि बड़ा बनना चाहते हो तो पहले छोटा बनो ।

११. ज्ञानवान् होकर जब किसी की अवस्था शिशु-जैसी हो जाती है, तब वह परमहंस हो जाता है ।

१२. निष्काम उपासना को परम धर्म कहा जाता है।


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आपका मित्र
अधम शिरोमणि