सोमवार, 12 नवंबर 2018

अनमोल वचन

“अनमोल वचन”
(श्रीमत् स्वामी श्रीनिगमानन्द सरस्वती परमहंसदेवजी)

१. किसी भी चीज का अपव्यय करने का नाम पाप है – चाहे वह धन हो, शरीर हो या धर्म हो । सद्व्यवहार धर्म और अपव्यवहार पाप है ।

२. चोर के साथ रहकर चोर बनना जितना आसान है, साधु के साथ रहकर साधु बनना उतना आसान नहीं है । 
जैसे ऊपर से नीचे आना आसान है, पर नीचे से ऊपर जाने के लिये काफी प्रयत्न करने होंगे, तभी कहीं ऊपर उठाना सम्भव होगा ।

३. जो व्यक्ति दूसरों की निन्दा करता है, वह स्वयं भी कभी अच्छा आदमी नहीं है ।

४. घर-बार छोड़ने का नाम त्याग नहीं है, आसक्ति के त्याग को ही ज्ञानी जन त्याग कहते हैं ।

५. आहार के साथ धर्म का सम्बन्ध है, क्योंकि शरीर और आत्मा एक साथ हैं । आहार सावधानीपूर्वक नहीं करने से धर्म नष्ट होता है ।

                    


६. सुख शरीर के किसी अंग-विशेष पर प्रकाशित होता है, जबकि आनन्द पूरे शरीर में व्याप्त होकर प्रकाशित होता है । सुख और आनन्द में यही अन्तर है ।

७. साधना और भजन में व्यस्त रहकर जगत् की उपेक्षा करना धर्म नहीं है । दयामय ईश्वर के प्रेम के आदर्श पर यदि जगत् के जीवों से प्रेम किया जा सकता है, तो वही सच्चा धर्म है । संसार का त्याग करना धर्म नहीं है, आत्मत्याग ही धर्म है ।

८. किसी दूसरे में दोष दिखाई देने पर अपनी ओर दृष्टि डालकर देखो, तुममें भी वह दोष है अथवा नहीं ।

९. चरित्र को सुधारा जा सकता है, परंतु स्वभाव में परिवर्तन होना बड़ा ही कठिन है; क्योंकि स्वभाव का अर्थ है स्व-भाव । यह जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का फल है ।

१०. यदि बड़ा बनना चाहते हो तो पहले छोटा बनो ।

११. ज्ञानवान् होकर जब किसी की अवस्था शिशु-जैसी हो जाती है, तब वह परमहंस हो जाता है ।

१२. निष्काम उपासना को परम धर्म कहा जाता है।


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आपका मित्र
अधम शिरोमणि

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