सर्वोत्कृष्ट भक्त – श्री हनुमान
श्रीरामभक्त हनुमान जी के जीवन में अभिमान
का तो लेशमात्र भी नहीं है |
जब वे माता श्रीजानकीजी की सुध लेकर आये और
भगवान् से मिले, तब भगवान् श्रीराम ने उनसे पूछा –
“ कहु कपि रावन पालित लंका |
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||”
(मानस ५.३३.३)
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||”
(मानस ५.३३.३)
"हनुमान जी ! बताओ,रावण द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को
किस प्रकार जलाया ?"
तब श्री हनुमान जी भगवान् श्रीराम को प्रसन्नमन जान
अभिमान रहित वचन बोले –
“साखामृग कै बड़ि मनुसाई | साखा तें साखा पर जाई ||
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा | निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ||
सो सब तव प्रताप रघुराई | नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ||”
(मानस ५|३३|४-५)
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा | निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ||
सो सब तव प्रताप रघुराई | नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ||”
(मानस ५|३३|४-५)
( प्रभो ! बन्दर का केवल एकमात्र यही पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी
डाल पर चला जाता है | मैंने जो समुद्र लांघकर सोने की नगरी जलाई और
राक्षसों को मारकर अशोकवन का विध्वंस किया, वह तो केवल आपका ही प्रताप एवं
प्रसाद है | नाथ इसमें मेरे सामर्थ्य की कोई बात ही नहीं है |)
सेवक को
अपने स्वामी के गुण-गौरव एवं बल-पुरुषार्थ आदि पर पूर्ण भरोसा रखते हुए सदा
यह ध्यान रखना चाहिए कि मैं ऐसे स्वामी का सेवक हूँ , कहीं मेरे कारण उनके
गुण-गौरव पर किसी प्रकार की आँच न आ जाए , ऐसा अभिमान तो सेवकों को होना
ही चाहिए , जैसे –
“अस अभिमान जाइ जनि भोरे |
मैं सेवक रघुपति पति मोरे |”
(मानस ३|११|११)
मैं सेवक रघुपति पति मोरे |”
(मानस ३|११|११)
श्रीहनुमानजी का अपना कोई भी स्वार्थ नहीं है | वे केवल अपने प्रभु की सेवा
एवं प्रसन्नता में ही प्रसन्नता मानते हैं | ठीक ही है , सच्चा भक्त तो
प्रभु की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता मानता है | इसी को
तत्सुख-सुखित्वभाव कहा जाता है | यही सर्वोत्कृष्ट भक्त का लक्षण है !!