गुरुवार, 9 अगस्त 2018

शास्त्रीय आज्ञाएं

नमो राघवाये,
आप सभी पाठक गणों का बहुत बहुत स्वागत है आध्यात्मिक प्रकाशबिंदु के इस सत्र में। आज के इस सत्र में हम चर्चा करेंगे उस विषय पर जिसके बारे में हमारे सदस्यों ने भी जिज्ञासा व्यक्त की है। 
आज का यह सत्र आधारित है शास्त्रीय आज्ञाओं पर अर्थात क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए - यह सब हम आज आपको बताएँगे इस सत्र में कि इस विषय में हमारे विभिन्न शास्त्र क्या कहते है। 
तो चलिए अपने सत्र को शुरू करते है :-

शास्त्रीय आज्ञाएं :-


१. दोनों हाथों, दोनों पैरों और मुख - इन पांच अंगों को धोकर भोजन करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है।
(पद्म पुराण , सृष्टि ०५१/८८ )
२. गीले पैरों वाला होकर भोजन करे परन्तु गीले पैर सोये नहीं। गीले पैरों वाला होकर भोजन करने मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करता है। 
(मनु स्मृति ०४/७६)

३. गृहस्थी को चाहिए कि वह पहले देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों (अतिथियों), पितरों और घर  देवताओं का पूजन करके पीछे स्वयं भोजनप्रसाद ग्रहण करें।
(महा० ३६/३४-३५)

४. सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, वह उतने ही वर्षो तक अरुन्तुद नरक में यातना भोगता है।  
(देवी भागवत ०९/३५/११-१३)

 ५. झूठा अन्न  किसी को न दे और स्वयं भी ना खाएं। दूसरे का अथवा अपना - किसी का भी जूठा अन्न न खाएं। प्रातः सायं भोजन न करें। बहुत अधिक न खाये और भोजन करके जूठे मुंह कहीं  न जाये। 
(मनु स्मृति ०२/५६)


६. जो स्त्री  के जूठे पात्रों में भोजन करता है, स्त्री का जूठा खाता है तथा स्त्री के साथ एक बर्तन में भोजन करता है , वह मानो  मदिरा का पान करता है। 
(महा० आश्व० ९२)

७. गुरु, देवता और अग्नि के सम्मुख पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए। 
(स्कन्द पुराण मा० कौ० ४१/१२७)

८. अनेक बार जल पीने से, पान खाने से, दिन में सोने से और स्त्री सहवास से उपवास (व्रत) दूषित एवं खण्डित हो जाता है। 
(अग्नि पुराण १७५/९)

९. व्रत, तीर्थ, अध्ययन तथा श्राद्ध में दुसरे का अन्न नहीं खाना चाहिए क्योकि जिसका अन्न खाया जाएगा उसका फल भी उसी को प्राप्त होगा। 
(निर्णय सिंधु १)

१०. जो मैले वस्त्र धारण करता हो, दाँतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोता है, वह साक्षात विष्णु भी हो, तो उसे भी लक्ष्मी छोड़ देती है। 
(गरुड़ पुराण, आचार० ११४/३५)

११. गौ, गंगा, गीता, गायत्री और गोविन्द - ये पांचों सनातन धर्म के प्राण है। 

१२. क्षमा, सत्य, दया , दान , शौच, इन्द्रिय - संयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरी न करना - ये दस नियम सम्पूर्ण व्रतों में आवश्यक माने गए है। 

१३. जल, फूल, मूल, दूध, हविष्य (घी), ब्राह्मण की इच्छा पूर्ति, गुरु का वचन तथा औषध - ये आठ व्रत नाशक नहीं हैं। 

१४. स्वयं जाकर दिया गया दान उत्तम, अपने यहाँ बुलाकर दिया गया दान मध्यम और माँगने दिया गया दान अधम होता है परन्तु सेवा कराकर दिया गया दान तो सर्वथा निष्फल ही होता है। 

१५. शिवजी और सूर्य नारायण को शंख से अर्घ्य नहीं देना चाहिए। भगवान विष्णु को शंख से अर्घ्य दिया जा  सकता है।स्वर्ण, चाँदी  और ताम्र पात्र से सभी देवताओं को अर्घ्य दे सकते है। 

१६. दो शिवलिंग, दो शालिग्राम, दो चक्र, दो सूर्य, तीन शक्ति, तीन गणेश, दो शंख की साथ साथ पूजा नहीं करनी चाहिए।

 १७. बिना संकल्प और शास्त्र विधि के सकाम कर्म - पूजन निष्फल होता है। बिना तिल, कुश और तर्पण के पितृ कर्म निष्फल होते है। बिना लाल फूल और चंदन के दुर्गा पूजा निष्फल होती है। बिना मिष्ठान और दक्षिणा के ब्राह्मण भोजन निष्फल है। 

१८. पत्थर पर से उठाकर न तो देवता पर चढ़ाये और ना ही अपने मस्तक पर लगाएं। चंदन घिसकर किसी पात्र में रखे और देव पर चढाने के बाद प्रसाद रूप में अपने मस्तक पर लगाए। सौभाग्यवती स्त्रियाँ इसी प्रकार रोली या कुमकुम अपने मस्तक पर लगाएं। 

१९. जप के समय माला गोमुखी या वस्त्र में ढँककर रखें। जप करते समय हिलना, ऊँघना, बोलना नहीं चाहिए। माला यदि हाथ से गिर जाये तो आचमन करके दोबारा प्रारम्भ करना चाहिए। 
इसी प्रकार यदि बोलना आवश्यक हो जाये तो भी आचमन करके दोबारा जप प्रारम्भ करना चाहिए। 

२०. लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सिरस, धतूरा, मातुलुंगी, मालती, सेमल  और कनेर के फूलों तथा अक्षतों के द्वारा भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। केतकी (केवड़ा), चम्पा, चमेली, मालती, कुन्द, सिरस, जूही, पलाश, मौलश्री, लाल गुड़हल, मोतिया के पुष्प भगवान शंकर को नहीं चढाने चाहिए। तुलसी गणेश जी को नहीं चढ़ानी चाहिए। दूर्वा और आक (मदार) देवी को अर्पण नहीं करने चाहिए। पत्र, पुष्प, फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ाना चाहिए। बिल्व पत्र उल्टा करके भगवान शिव जी को अर्पण करना चाहिए। 

वस्तुतः,
शास्त्रों में मनुष्य के द्वारा करने योग्य एवं वर्जित कार्य एवं उनकी कार्यविधि का विस्तार से वर्णन मिलता है। उन सभी में से महत्वपूर्ण  का चयन करके उनका यहां उल्लेख कर पाना दुष्कर कार्य है फिर भी उनमे से कुछ को इस सत्र में बताया गया है। 
उम्मीद है कि  इस सत्र से आप के संदेह का निवारण होगा एवं पूजन कार्यो में वर्जित तथ्यों से आप सभी अवगत हुए होंगे। इस प्रकार यह सत्र समाप्त होता है। जल्द ही एक नवीन सत्र के साथ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत होंगे। 


तब तक के लिए

नमो राघवाये 



आपका मित्र
अधम शिरोमणि 

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