रविवार, 8 अक्तूबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १७

॥जय श्री राम॥

तूने तो मुझे कह दिया जग जंजाल है पर बेटा तुझे पता है कि तेरी तनिक सी -ना कितना अनर्थ कर देंगी मेड़ता में ? तलवारें म्यानों से बाहर निकल आयेंगी । माँ ने चिन्तित हो कहा ।

आप चिन्ता न करे , माँ ! जब भी कोई रीति करनी हो मुझे बुला लीजिएगा , मैं आ जाऊँगी ।
वाह , मेरी लाड़ली ! तूने तो मेरा सब दुख ही हर लिया । कहती हुई प्रसन्न मन से माँ झाली जी चली गई ।

गोधूलि के समय बारात आई ।द्वार -पूजन तोरण-वन्दन हुआ ।चित्तौड़ से पधारे विशेष अतिथि और मेड़ताधीश बाहों में भरकर एक दूसरे से मिले और जनवासे में विराजे, नज़र न्यौछावर हुई ।

जब चित्तौड़ से आया मीरा के लिए पड़ला (वरी ) रनिवास पहुँचा तो सब चकित देखते से रह गये ।वस्त्रों के रंग , आभूषणों की गढ़ाई और गिनती ठीक उतनी की उतनी , वैसी की वैसी जैसा सबने मीरा के कक्ष में सुबह देखा था , -बस मूल्य और काम में ही दोनों में अन्तर दिखाई दे रहा था ।जब मीरा को वस्त्राभूषण धारण कराने का समय आया तो उसने कहा , सब वैसा -का वैसा ही तो है भाभा हुकम ! जो पहने हूँ , वही रहने दीजिये न ।

चित्तौड़ से आयी हुई पड़ले की सामग्री मीरा के दहेज में मिला दी गई ।मण्डप में अपने और भोजराज के बीच मीरा ने ठाकुर जी को ओढ़नी से निकाल विराजमान कर लिया।ठौर कम पड़ी तो भोजराज थोड़ा परे सरक गये ।भाँवर के समय बायें हाथ से गिरधरलाल को साथ ही मीरा ने पकड़े रखा ।

स्त्रियाँ अपनी ही धुन में गीत गाती ,आनन्द मनाते हुये बारम्बार जोड़ी की सराहना करने लगी - जैसी सुशील , सुन्दर अपनी बेटी है , वैसा ही बल , बुद्धि और रूप- गुण की सीमा बींद है । दूसरी ने कहा , ऐसा जमाई मिलना सौभाग्य की बात है ।बड़े घर का बेटा होते हुये भी शील और सन्तोष तो देखो ।

हीरे- मोतियों से जड़ा मौर, जरी का केसरिया साफा, बड़े -बड़े


चित्तौड़ से आई प्रौढ़ दासियाँ वर वधू पर राई नौन उतारते हुये अपने राजकुवंर के गुणों का बखान करने लगी   बल, बुद्धि तो इनका आभूषण ही है ।पर जब न्याय के आसन पर बैठते है तो बड़े बड़े लोग आश्चर्य चकित रह जाते है ..और जब.. । भोजराज ने बाँया हाथ उठा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया ।

विवाह सम्पन्न हुआ तो सबको प्रणाम के पश्चात दोनों को एक कक्ष में पधराया गया।द्वार के पास निश्चिंत मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उनके सम्मुख आ खड़े हुये  मुझे अपना वचन याद है ।आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे सदा आप अपनी ढाल पायेंगी । भोजराज ने गम्भीर मीठे स्वर में मीरा से कहा , आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे आप सदा अपनी ढाल पायेंगी । थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले , यह मुँह दिखाई का नेग , इसे कहाँ रखूँ ?  उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुये कहा ।

मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया ।और सोचने लगी एकलिंग (भगवान शिव जो चित्तौड़गढ़ में इष्टदेव है । )के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण तो नहीं दिखाई देता पर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये है । मीरा ने आँचल के नीचे से गोपाल को निकालकर उसी झरोखे में विराजमान कर दिया ।

हुकम हो तो चाकर भी इनकी चरण वन्दना कर ले !  भोजराज ने कहा । मीरा ने मुस्कुरा कर स्वीकृति में माथा हिलाया ।

एकलिंग नाथ ने बड़ी कृपा की ।चित्तौड़ के महल भी आपकी चरणरज से पवित्र होंगे ।शैव ( शिव भक्त ) सिसौदिया भी वैष्णवों के संग से पवित्रता का पाठ सीखेंगे । उन्होंने वह हार गिरधर गोपाल को धारण करा दिया ।

आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया प्रभु ! मैं कृतार्थ हुआ ।इस अग्नि परीक्षा में साथ देना , मेरे वचन और अपने धन की रक्षा करना मेरे स्वामी !  फिर मीरा की ओर मुस्कुराते हुये बोले , यह घूँघट ? मीरा ने मुस्कुरा कर घूँघट उठा दिया ।वह अतुल रूपराशि देखकर भोजराज चकित रह गये , पर उन्होंने पलकें झुका ली ।

प्रातः कुंवर कलेवा पर पधारे तो स्त्रियों ने हँसी मज़ाक में प्रश्नों की बौछार कर दी ।भोजराज ने धैर्य से सब प्रश्नों का उत्तर दिया । रत्नसिंह (भोजराज के छोटे भाई ) ने भोजराज और मीरा के बीच गिरधर को बैठा देखा तो धीरे से पूछा , यह क्या टोटका है ?

टोटका नहीं , यह तुम्हारी भाभीसा के भगवान है । भोजराज ने हँस कर कहा । भगवान तो मन्दिर में रहते है ।यहाँ क्यों ? बींद (दूल्हा ) है तो बींदनी के पास ही तो बैठेंगे न! भोजराज मुस्कुराये । रत्नसिंह हँस पड़े , पर भाई बींद आप है कि ये ?

बींद तो यही है ।मैं तो टोटका हूँ ।धीरेधीरे तुम समझ जाओगे ।भोजराज ने धैर्य से कहा । क्यों भाभीसा ! दादोसा क्या फरमा रहे है ? रत्नसिंह ने मीरा से पूछा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया । विदाई का दिन भी आ गया ।माँ ,काकी ने नारी धर्म की शिक्षा दी ।

पिता बेटी के गले लग रो पड़े ।वीरमदेव जी मीरा के सिर पर हाथ रख बोले , तुम स्वयं समझदार हो, पितृ और पति दोनों कुलों का सम्मान बढ़े, बेटा वैसा व्यवहार करना ।

फिर भोजराज की तरफ़ हाथ जोड़ वीरमदेव जी बोले , हमारी बेटी में कोई अवगुण नहीं है , पर भक्ति के आवेश में इसे कुछ नहीं सूझता ।इसकी भलाई बुराई , इसकी लाज आपकी लाज है ।आप सब संभाल लीजिएगा । भोजराज ने उन्हें आँखों से ही आश्वासन दिया । उसी समय रोती हुई माँ मीरा के पास आई और बोली , बेटी तेरे दाता हुकम ( वीरमदेव जी )ने दहेज में कोई कसर नहीं रखी पर लाडो , कुछ और चाहिए तो बोल मीरा ने कहा

दै री अब म्हाँको गिरधरलाल ।
प्यारे चरण की आन करति हाँ और न दे मणि लाल ॥
नातो सगो परिवारो सारो म्हाँने लागे काल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर छवि लखि भई निहाल ॥

माँ ने मीरा से जब पूछा कि बेटी मायके से कुछ और चाहिए तो बता तो मीरा ने कहा, बस माँ मेरे ठाकुर जी दे दो-मुझे और किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं है ।

ठाकुर जी को भले ही ले जा बेटा , पर उनके पीछे पगली होकर अपना कर्तव्य न भूल जाना ।देख, इतने गुणवान और भद्र पति मिले है ।सदा उनकी आज्ञा में रहकर ससुराल में सबकी सेवा करना  माँ ने कहा । बहनों ने मिल कर मीरा को पालकी में बिठाया ।मंगला ने सिंहासन सहित गिरधरलाल को उसके हाथ में दे दिया ।दहेज की बेशुमार सामग्री के साथ ठाकुर जी की भी  पोशाकें और श्रंगार सब सेवा का ताम झाम भी साथ चला ।वस्त्राभूषण से लदी एक सौ एक दासियाँ साथ गई ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

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