गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

मांसाहार - अनुचित एवं महापाप



हिंसामूलमध्यमास्पदमल ध्यानस्थ 
रौद्रस्य यदविभत्स, रूधिराविल कृमिगृह 
दुर्गन्धिपूयदिकम्। 
शुक्रास्रक्रप्रभव 
नितांतमलिनम् सदभि सदा निंदितम्, 
को भुड्क्ते नरकाय राक्षससमो 
मासं तदात्मद्रुहम्॥
अर्थात्:

माँस हिंसा का मूल, हिंसा करने पर ही निष्पन्न होता है। अपवित्र है। और रौद्र (क्रूरता) का कारण है। देखने में विभत्स, रक्तसना होता है। कृमियों व सुक्षम जंतुओं का घर है। दुर्गंधयुक्त मवाद वाला, शुक्र-शोणित से उत्पन्न, अत्यंत मलिन व सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। भला कौन इसका भक्षण कर, राक्षस सम बनकर नरक में जाना चाहेगा?
• सामिष (माँस पदार्थ) में एक जीव नहीं, अधिसंख्य जीवों की हिंसा 

माँस में केवल एक जीव का ही प्रश्न नहीं है। जब जीव की मांस के लिए हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का क्षण मात्र में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है, उसी क्षण
से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार होता है, वे बुचडखाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, वे रोगाणु भी तो जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही लाखों मक्खी के अंडे,लार्वा। लाखों सुक्ष्म जीव और लाखों रोगाणु होते है। इतना ही नहीं पकने के बाद भी मांस पूर्ण सुरक्षित नहीं हो जाता, उसमें जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, एक जीव का मांस होते हुए भी, संख्या के आधार पर माँस असंख्य-अनंत जीवहिंसा का कारण बनता है।

यह भ्रांत धारणा है कि माँसाहार उद्देश्य से होने वाले वध में मात्र एक जीव के वध का पाप लगता है। जबकि सच्चाई यह है कि माँसाहार में, उस एक जीव सहित, माँस में उत्पन्न व उस पर आश्रित असंख्य जीवों के वध का दुष्कर्म दोष भी लगता है। निश्चित ही माँस में महाहिंसा है।

1 टिप्पणी: