बुधवार, 8 नवंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १९

॥जय श्री राम॥

भोजराज मीरा का ऐसा प्रेम भाव देख स्तब्ध रह गये ।उन्होंने स्वयं का भाव समेट कर शीघ्रता से मिथुला को मीरा को संभालने के लिए पुकारा ।

मीरा प्रभु का बींद स्वरूप स्मरण करते करते भाव में निमग्न हो गई ।मिथुला ने जल पात्र मुख से लगाया तो वह सचेत हुईं। फिर ?आप बता रही थी कि प्रभु अक्षय तृतीया को बींद बनकर पधारे थे – भोजराज ने पूछा ।

मीरा ने किचिंत लजाते हुये कहा , जी हुकम ! मेरा और प्रभु का हस्त -मिलाप हुआ। उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गाँठ बाँधी गयी । भाँवरो में , मैं उनके अरूण मृदुल चारू चरणों पर दृष्टि लगाये उनका अनुसरण कर रही थी । हमें महलों में पहुँचाया गया । यह हीरकहार। उसने एक हाथ से अपने गले में पड़े हीरे के हार को दिखाया। यह प्रभु ने मुझे पहनाया और मेरा घूँघट ऊपर उठा दिया ।

यह. यह वह नहीं है , जो मैंने नज़र किया था ? भोजराज ने सावधान होकर पुछा ।
वह तो गिरधर गोपाल के गले में है । मीरा ने कहा और हार में लटकता चित्र दिखाया -यह , इसमें प्रभु का चित्र है ।

मैं देख सकता हूँ इसे ? भोजराज चकित हो उठे ।

अवश्य । मीरा ने हार खोल कर भोजराज की हथेली पर रख दिया ।भोजराज ने श्रद्धा से देखा ,सिर से लगाया और वापिस लौटा दिया । आगे क्या हुआ ? उन्होंने जिज्ञासा की ।

मैं प्रभु के चरण स्पर्श को जैसे ही झुकी- उन्होंने मुझे बाँहों में भर उठा लिया । मीरा की आँखें आनन्द से मुंद गई ।वाणी अवरूद्ध होने लगी ।हा म्हाँरा सर.. सर्वस्व ..म्हूँथारी चेरी (दासी) ।

मीरा की अपार्थिव दृष्टि से आनन्द अश्रु बन ढलकने लगा ।ऐसा लगा जैसे आँसू -मोती की लड़िया बनकर टूट कर झड़ रहे हो ।उसे स्वयं की सुध न रही । भोजराज को मन हुआ उठकर जल पिला दें पर अपनी विवशता स्मरण कर बैठे रहे । कुछ क्षणों के पश्चात जब मीरा ने निमीलित दृष्टि खोली तो किंचित संकुचित होते हुए बोली ,मैं तो बाँवरी हूँ  कोई अशोभनीय बात तो नहीं कह दी । नहीं नहीं ! आप ठाकुर जी से विवाह की बात बता रही थी कि कक्ष में पधारने पर आपने प्रणाम किया और. ।

जी । मीरा जैसे खोये से स्वर में बोली - वह मेरे समीप थे, वह सुगन्धित श्वास , वह देह गन्ध , इतना आनन्द मैं कैसे संभाल पाती ! प्रातःकाल सबने देखा -वह गँठजोड़ा , हथलेवे का चिन्ह , गहने , वस्त्र , चूड़ा ।चित्तौड़ से आया चूड़ा तो मैंने पहना ही नहीं  गहने , वस्त्र सब ज्यों के त्यों रखे है ।
क्या मैं वहाँ से आया पड़ला देख सकता हूँ ?भोजराज बोले ।
अभी मंगवाती हूँ । मीरा ने मंगला और मिथुला को पुकारा । मिथुला ,थूँ जो द्वारिका शूँ आयो पड़ला कणी पेटी में है ?और चित्तौड़ शूँ पड़ला -वा ऊँचा ला दोनों तो मंगला ।

दोंनों पेटियाँ आयी तो दासियों ने दोनों की सामग्री खोलकर अलग अलग रख दी । आश्चर्य से भोजराज ने देखा ।सब कुछ एक सा था गिनती , रंग पर फिर भी चित्तौड़ के महाराणा का सारा वैभव द्वारिका से आये पड़ले के समक्ष तुच्छ था ।श्रद्धा पूर्वक भोजराज ने सबको छुआ, प्रणाम किया ।सब यथा स्थान पर रख दासियाँ चली गई तो भोजराज ने उठकर मीरा के चरणों में माथा धर दिया ।

अरे यह , यह क्या कर रहे है आप ? मीरा ने चौंककर कहा और पाँव पीछे हटा लिए ।
अब आप ही मेरी गुरु है ,मुझ मतिहीन को पथ सुझाकर ठौर- ठिकाने पहुँचा देने की कृपा करें । गदगद कण्ठ से वह ठीक से बोल नहीं पा रहे थे , उनके नेत्रों से अश्रुओं की बूँदे मीरा के अमल धवल चरणों का अभिषेक कर रहे थे ।

भोजराज सजल नेत्रों से अतिशय भावुक एवं विनम्र हो मीरा के चरणों में ही बैठे उनसे मार्ग दर्शन की प्रार्थना करने लगे । मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया - आप उठकर विराजिये ।प्रभु की अपार सामर्थ्य है ।शरणागत की लाज उन्हें ही है ।कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये । भोजराज ने अपने को सँभाला ।वे वापिस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे ।मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया ।

आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें ।पूजा -पाठ , नाचना-गाना ,मँजीरे याँ तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है । भोजराज ने कहा । यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है । मीरा हँस पड़ी । बस आप जो भी करें , प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है ।जो भी देखें , उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें ।कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी ।

युद्ध भूमि में शत्रु संहार , न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?

हाँ हुकम ! मीरा ने गम्भीरता से कहा- नाटक के पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या ? उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते है , केवल मैं प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ ।यह जगत तो प्रभु का रंगमंच है।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है ।अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें ।कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न सेवक की तरह जो स्वामी चाहे वही किया जाये ।मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है , जितनी मजदूर बनने पर , पर ऐसे में स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है ।हाँ -एक बाद अवश्य ध्यान रखने की है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है , उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये ।

मीरा ने थोड़ा रूककर फिर कहा , क्या उचित है और क्या अनुचित ,यह बात किसी और से सुनने की आवश्यकता नहीं होती।भीतर बैठा अन्तर्यामी ही हमें उचित अनुचित का बोध करा देता है ।उसकी बात अनसुनी करने से धीरेधीरे वह भीतर की ध्वनि धीमी पड़ती जाती है, और नित्य सुनने से और उसपर ध्यान देकर उसके अनुसार चलने पर अन्त:करण की बात स्पष्ट होती जाती है ।फिर तो कोई अड़चन नहीं रहती ।कर्तव्य -पालन ही राजा के लिए सबसे बड़ी पूजा और तपस्या है ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

1 टिप्पणी:

  1. 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻 अति सुंदर!!
    अद्भुत!!!
    🙏🏻🌹जय गिरधर गोपाल🌹🙏🏻
    🙏🏻🌹जय मीरा बाईसा🌹🙏🏻

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