गुरुवार, 14 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १

॥ जय श्री राम ॥

भक्तशिरोमणि राजपूत रमणी मीरा बाई का नाम  वैष्णव समाज में किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है । मीरा ने प्रकट होकर भारत वर्ष ,हिन्दु जाति और नारी कुल को पावन और धन्य कर दिया । प्रेम दीवानी मीरा बाई की भक्ति भावना प्रेम पथ पथिकों के लिए एक महान आदर्श है । जीवन अराध्य के श्री चरणों पर उनकी सर्वार्पण साधना  परायण जन के लिए प्रेरणा का अविरल स्त्रोत है । मीरा बाई की गुण गाथा प्रेमदान का गान कर आज लाखों जन भगवत्प्रेम को प्राप्त करते है, उनके प्रेमपूरित पुनीत पदों का गान कर अनगिनत नर-नारी भक्ति रस के पावन प्रवाह में बह जाते है । कुछ समय पूर्व श्री सद्गुरुदेव भगवान ने कुछ प्रश्नों का समाधान करते हुए बतलाया भी है की संत रैदास जी ने श्री मीराबाई जी को 'राम' नाम की ही दीक्षा दी थी । मीराबाई जी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर संत रैदास जी से दीक्षा ग्रहण कर, इसे अपने इस पद में स्वयं स्वीकार भी करती हैं -

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो। 
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु, 
किरपा कर अपनायो॥

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो।

एक भक्त के स्वरूप में जितना दर्द , करूणा , समर्पण , तीव्र वैराग्य और ठाकुर के लिए जितना अपनत्व उनके गीतों में मिलता है  वह अपने आप में ही कसौटी है, उसकी तुलना कहीं भी नहीं ।

मीरा जी की कवित्व और गायन प्रतिभा स्वाभाविक थीं ।उनके गिरधर गोपाल के लिए गीत स्वतः सहज ही मुखरित होते थे ।उन्होंने स्वयं कभी भी अपने पदों को कहीं लिखा नहीं  ब्लकि उनकी अन्तरंगा दासियाँ ही प्रयत्न से उन गीतों को एक पोथी में लिख लिया करती थीं ।

परम भक्तिमती मीराबाई- जिनके जीवन का एक एक श्वास , शरीर की एक एक चेष्टा , चिन्तन का एक एक कण, ह्रदय का एक एक स्पन्दन , वाणी का एक एक शब्द अपने परमाराध्य गिरधर गोपाल के भाव सिंधु में निमग्न रहता था- उनके परमपावन श्री चरणों में मुझ अकिञ्चन का बार बार प्रणाम ।


आज से मीरा चरित्र नामक (६२ अंकीय) यह श्रृंखला सत्र प्रारम्भ किया जा रहा है। ऐसी भक्तिमयी मीरा बाई के दिव्य व्यक्तित्व को शब्दों की रूपरेखा में बाँधते हुये हम उनकी प्रेम साधना और उनके गीतों का गुण गान करने का प्रयास ठाकुर जी की कृपा से क्रमशः करेंगे । प्रतिदिन वैष्णव जनो के आनद हेतु एक अंश प्रसारित होगा जो चरित पूर्ण होने तक जारी रहेगा । आशा है श्री मीराबाई की कृपा हमपे भी होगी और हम भी अपने आराध्य श्री राघव सरकार की विमल भक्ति पा सकेंगे ।

॥श्री सीतारामाय समर्पणं॥

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॥ मीरा चरित ॥

॥परिचय॥

भाग एक

भारत के एक प्रांत राज्यस्थान का क्षेत्र है मारवाड़ -जो अपने वासियों की शूरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।मारवाड़ के शासक राव दूदा सिंह बड़े प्रतापी हुए । उनके चौथे पुत्र रत्नसिंह जी और उनकी पत्नी वीर कुंवरी जी के यहां मीरा का जन्म संवत 1561 (1504 ई०) में हुआ ।

राव दूदा जी जैसे तलवार के धनी थे, वै से ही वृद्धावस्था में उनमें भक्ति छलकी पड़ती थी । पुष्कर आने वाले अधिकांश संत मेड़ता आमंत्रित होते और सम्पूर्ण राजपरिवार सत्संग -सागर में अवगाहन कर धन्य हो जाता ।

मीरा का लालन पालन दूदा जी की देख रेख में होने लगा ।मीरा की सौंदर्य सुषमा अनुपम थी । मीरा के भक्ति संस्कारों को दूदा जी पोषण दे रहे थे । वर्ष भर की मीरा ने कितने ही छोटे छोटे कीर्तन दूदा जी से सीख लिए थे । किसी भी संत के पधारने पर मीरा दूदा जी की प्रेरणा से उन्हें अपनी तोतली भाषा में भजन सुनाती और उनका आशीर्वाद पाती । अपने बाबोसा की गोद में बैठकर शांत मन से संतो से कथा वार्ता सुनती ।

दूदा जी की भक्ति की छत्रछाया में धीरे धीरे मीरा पाँच वर्ष की हुई ।एक बार ऐसे ही मीरा राजमहल में ठहरे एक संत के समीप प्रातःकाल जा पहुँची ।वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे ।मीरा प्रणाम कर पास ही बैठ गई और उसने जिज्ञासा वश कितने ही प्रश्न पूछ डाले-यह छोटे से ठाकुर जी कौन है? ; आप इनकी कैसे पूजा करते है? संत भी मीरा के प्रश्नों का एक एक कर उत्तर देते गये ।फिर मीरा बोली , यदि यह मूर्ति आप मुझे दे दें तो मैं भी इनकी पूजा किया करूँगी । संत बोले ,नहीं बेटी ! अपने भगवान किसी को नहीं देने चाहिए ।वे हमारी साधना के साध्य है ।

मीरा की आँखें भर आई ।निराशा से निश्वास छोड़ उसने ठाकुर जी की तरफ़ देखा और मन ही मन कहा- यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ? और मीरा भरे मन से उस मूर्ति के बारे में सोचती अपने महल की ओर बढ़ गई.. ।

दूसरे दिन प्रातःकाल मीरा उन संत के निवास पर ठाकुर जी के दर्शन हेतु जा पहुँची ।मीरा प्रणाम करके एक तरफ बैठ गई ।
संत ने पूजा समापन कर मीरा को प्रसाद देते हुए कहा, बेटी , तुम ठाकुर जी को पाना चाहती हो न!
मीरा:- बाबा, किन्तु यह तो आपकी साधना के साध्य है (मीरा ने कांपते स्वर में कहा) ।
बाबा :- अब ये तुम्हारे पास रहना चाहते है- तुम्हारी साधना के साध्य बनकर , ऐसा मुझे इन्होने कल रात स्वप्न में कहा कि अब मुझे मीरा को दे दो ।( कहते कहते बाबा के नेत्र भर आये) ।इनके सामने किसकी चले ?
मीरा:- क्या सच? ( आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से बोली जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ ।)
बाबा: -(भरे कण्ठ से बोले ) हाँ ।पूजा तो तुमने देख ही ली है ।पूजा भी क्या  अपनी ही तरह नहलाना- धुलाना, वस्त्र पहनाना और श्रंगार करना , खिलाना -पिलाना ।केवल आरती और धूप विशेष है ।
मीरा:- किन्तु वे मन्त्र , जो आप बोलते है, वे तो मुझे नहीं आते ।
बाबा :- मन्त्रों की आवश्यकता नहीं है बेटी। ये मन्त्रो के वश में नहीं रहते। ये तो मन की भाषा समझते है। इन्हें वश में करने का एक ही उपाय है कि इनके सम्मुख ह्रदय खोलकर रखदो। कोई छिपाव या दिखावा नहीं करना। ये धातु के दिखते है पर है नहीं। इन्हें अपने जैसा ही मानना।
मीरा ने संत के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और जन्म जन्म के भूखे की भाँति अंजलि फैला दी ।संत ने अपने प्राणधन ठाकुर जी को मीरा को देते हुए उसके सिर पर हाथ रखकर गदगद कण्ठ से आशीर्वाद दिया -भक्ति महारानी अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य सहित तुम्हारे ह्रदय में निवास करें, प्रभु सदा तुम्हारे सानुकूल रहें ।
मीरा ठाकुर जी को दोनों हाथों से छाती से लगाये उन पर छत्र की भांति थोड़ी झुक गई और प्रसन्नता से डगमगाते पदों से वह अन्तःपुर की ओर चली ।


॥ नमो राघवाय ॥

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सुंदर!!
    ये धातु के दिखते हैं पर हैं नहीं!!!
    वाह!!
    ������जय मीरा बाईसा������

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