मंगलवार, 19 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ६

॥ जय श्री राम ॥

सखियों -दासियों के सहयोग से मीरा ने आज श्याम कुन्ज को फूल मालाओं की बन्दनवार से अत्यंत सजा दिया था । अपने गिरधर गोपाल का बहुत आकर्षक श्रंगार किया । सब कार्य सुंदर रीति से कर मीरा ने तानपुरा उठाया ।

आय मिलो मोहिं प्रीतम प्यारे । हमको छाँड़ भये क्यूँ न्यारे ॥
बहुत दिनों से बाट निहारूँ । तेरे ऊपर तन मन वारूँ ॥
तुम दरसन की मो मन माहीं । आय मिलो किरपा कर साई ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर । आय दरस द्यो सुख के सागर ॥

मीरा की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई ।रोते रोते मीरा फिर गाने लगी ।चम्पा ने मृदंग और मिथुला ने मंजीरे संभाल लिए .

जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में ।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में ॥
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ ।
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ ॥
हम भई गुल काम लता वृन्दावन रैना ।
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना ॥
गुरूजन कठिन कानिं कासों री कहिये ।
मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये ॥

गान विश्रमित हुआ तो मीरा की निमीलित पलकों तले लीला  सृष्टि विस्तार पाने लगी- वह गोप सखा के वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्याम सुंदर को ढूँढ रही है । उसके हाथ में ठाकुर को ढूँढते ढूँढते कभी तो वृक्ष का तना , कभी झाड़ी के पत्ते और कभी गाय का मुख आ जाता है । वह थक गयी ,व्याकुल हो पुकार उठी - कहाँ हो गोविन्द ! आह , मैं ढूँढ नहीं पा रही हूँ । श्याम सुन्दर ! कहाँ हो.कहाँ हो.कहाँ हो..?

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का समय है । मीरा श्याम कुन्ज में ठाकुर के आने की प्रतीक्षा में गायन कर रही है ।उसे लीला अनुभूति हुई कि वह गोप सखा वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ रही है । तभी गढ़ पर से तोप छूटी ।चारभुजानाथ के मन्दिर के नगारे , शंख , शहनाई एक साथ बज उठे ।समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया   चारभुजानाथ की जय ! गिरिधरण लाल की जय ।

उसी समय मीरा ने देखा  जैसे सूर्य -चन्द्र भूमि पर उतर आये हो , उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योति स्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किए सौन्दर्य -सुषमा- सागर श्यामसुन्दर खड़े मुस्कुरा रहे हैं ।वे आकर्ण दीर्घ दृग ,उनकी वह ह्रदय को मथ देने वाली दृष्टि , वे कोमल अरूण अधर -पल्लव , बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका , वह स्पृहा -केन्द्र विशाल व क्ष , पीन प्रलम्ब भुजायें ,कर-पल्लव , बिजली सा कौंधता पीताम्बर और नूपुर मण्डित चारू चरण ।एक दृष्टि में जो देखा जा सका. फिर तो दृष्टि तीखी धार -कटार से उन नेत्रों में उलझ कर रह गई ।क्या हुआ ? क्या देखा ? कितना समय लगा ? कौन जाने ?समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है ।

इतनी व्याकुलता क्यों , क्या मैं तुमसे कहीं दूर था ?
श्यामसुन्दर ने स्नेहासिक्त स्वर में पूछा । मीरा प्रातःकाल तक उसी लीला अनुभूति में ही मूर्छित रही ।सबह मूर्छा टूटने पर उसने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही है ।उसने तानपुरा उठाया ।सखियाँ उसे सचेत हुई जानकार प्रसन्न हुई ।कीर्तन बन्द करके वे मीरा का भजन सुनने लगी  

म्हाँरा ओलगिया घर आया जी ।
तन की ताप मिटी सुख पाया ,  हिलमिल मंगल गाया जी ॥
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूँ मेरे आनन्द छाया जी ।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ ,  भौं का दरद मिटाया जी ॥
चंद को निरख कुमुदणि फूलै , हरिख भई मेरी काया जी ।
रगरग सीतल भई मेरी सजनी , हरि मेरे महल सिधाया जी ॥
सब भक्तन का कारज कीन्हा , सोई प्रभु मैं पाया जी ।
मीरा बिरहणि सीतल भई , दुख द्वदं दूर नसाया जी ॥
म्हाँरा ओलगिया घर आयाजी ॥

इस प्रकार आनन्द ही आनन्द में अरूणोदय हो गया ।श्री कृष्ण जनमोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात बाबा बिहारी दास जी ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की ।भारी मन से दूदाजी ने स्वीकृति दी ।मीरा को जब मिथुला ने बाबा के जाने के बारे में बताया तो उसका मन उदास हो गया ।वह बाबा के कक्ष में जाकर उनके चरणों में प्रणाम कर रोते रोते बोली , बाबा आप पधार रहें है ।  हाँ बेटी ! वृद्ध हुआ अब तेरा यह बाबा ।अंतिम समय तक वृन्दावन में श्री राधामाधव के चरणों में ही रहना चाहता हूँ । बाबा ! मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।मुझे भी अपने साथ वृन्दावन ले चलिए न बाबा । मीरा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर सुबकते हुए कहा ।

श्री राधे! श्री राधे! बिहारी दास जी कुछ बोल नहीं पाये ।उनकी
आँखों से भी अश्रुपात होने लगा ।कुछ देर पश्चात उन्होंने मीरा के सिर पर हाथ फेरते हुये कहा - हम सब स्वतन्त्र नहीं है पुत्री ।वे जब जैसा रखना चाहे उनकी इच्छा में ही प्रसन्न रहे ।भगवत्प्रेरणा से ही मैं इधर आया ।सोचा भी नहीं था कि शिष्या के रूप में तुम जैसा रत्न पा जाऊँगा ।तुम्हारी शिक्षा में तो मैं निमित्त मात्र रहा ।तुम्हारी बुद्धि , श्रद्धा ,लग्न और भक्ति ने मुझे सदा ही आश्चर्य चकित किया है ।तुम्हारी सरलता , भोलापन और विनय ने ह्रदय के वात्सल्य पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया ।राव दूदाजी के प्रेम , विनय और संत -सेवा के भाव इन सबने मुझ विरक्त को भी इतने दिन बाँध रखा ।

किन्तु बेटा ! जाना तो होगा ही ।  बाबा ! मैं क्या करूँ ? मुझे आप आशीर्वाद दीजिये कि. ।मीरा की रोते रोते हिचकी बँध गई., मुझे भक्ति प्राप्त हो, अनुराग प्राप्त हो , श्यामसुन्दर मुझ पर प्रसन्न हो ।उसने बाबा के चरण पकड़ लिए । बाबा कुछ बोल नहीं पाये, बस उनकी आँखों से झर झर आँसू चरणों पर पड़ी मीरा को सिक्त करते रहे ।फिर भरे कण्ठ से बोले, श्री किशोरी जी और श्यरश्यामसुन्दर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे ।पर मैं एक तरफ जब तुम्हारी भाव भक्ति और दूसरी ओर समाज के बँधनों का विचार करता हूँ तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठते है ।बस प्रार्थना करता हूं कि तुम्हारा मंगल हो ।चिन्ता न करो पुत्री ! तुम्हारे तो रक्षक स्वयं गिरधर है ।


आगामी अंको में जारी
नमो राघवाय

2 टिप्‍पणियां:

  1. 👌🏻👌🏻👌🏻 बहुत ही भावनात्मक प्रसंग!!
    मन भाव विभोर हो गया!!! 😢
    🙏🏻🌹जय गिरधर गोपाल🌹🙏🏻
    🙏🏻🌹जय मीरा बाईसा🌹🙏🏻
    मीरा जी हमें भी कान्हा की भक्ति प्रदान करें। 🙏🏻🙏🏻

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  2. बहुत ही सुंदर और प्रेरणात्मक सिरीज़ शुरु की है।
    अगले भाग का इंतज़ार रहता है।
    बहुत बहुत धन्यवाद इतनी सुंदर कथा का आयोजन करने के लिए!!
    🙏🏻🌹नमो राघवाय🌹🙏🏻

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