शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ९

॥ नमो राघवाय ॥

रात ठाकुर जी को शयन करा कर मीरा उठ ही रही थी कि गिरिजा जी की दासी ने आकर संदेश दिया -बड़े कुँवरसा आपको बुलवा रहे है । क्यों अभी ही ? मीरा ने चकित हो पूछा और साथ ही चल दी ।
उसने महल में जाकर देखा कि उसके बड़े पिताजी और बड़ी माँ दोनों प्रसन्न चित बैठे थे ।मीरा भी उन्हें प्रणाम कर बैठ गई । मीरा तुम्हें अपनी यह माँ कैसी लगती है ? वीरमदेव जी ने मुस्कुरा कर पूछा । माँ तो माँ होती है ।माँ कभी बुरी नहीं होती । मीरा ने मुस्कुरा कर कहा ।

और इनके पीहर का वंश , वह कैसा है ? यों तो
इस विषय में मुझसे अधिक आप जानते होंगे ।पर जितना मुझे पता है तो हिन्दुआ सूर्य, मेवाड़ का वंश संसार में वीरता , त्याग , कर्तव्य पालन और भक्ति में सर्वोपरि है । मेरी समझ में तो बाव जी हुकम ! आरम्भ में सभी वंश श्रेष्ठ ही होते है उसके किसी वंशज के दुष्कर्म के कारण अथवा हल्की ज़गह विवाह -सम्बन्ध से लघुता आ जाती है ।

बेटी , तुम्हारे इन माँ के भतीजे है भोजराज ।रूप और गुणों की खान मैंने सुना है । मीरा ने बीच में ही कहा । वंश और पात्र में कहीं कोई कमी नहीं है ।गिरिजा जी तुझे अपने भतीजे की बहू बनाना चाहती है । बाव जी हुकम ! मीरा ने सिर झुका लिया - ये बातें बच्चों से तो करने की नहीं है ।

जानता हूँ बेटी ! पर दादा हुकम ने फरमाया है कि मेरे जीवित रहते मीराका विवाह नहीं होगा ।बेटी बापके घरमें नहीं खटती बेटा ! यदि
तुम मान जाओ तो दाता हुकमको मनाना सरल हो जायेगा ।बादमें ऐसा घर-वर शायद न मिले ।मुझे भी तुमसे ऐसी बातें करना अच्छा नहीं लग रहा है, किन्तु कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है तुम्हारी माताएँ कहती हैं कि हमसे ऐ सी बात कहते नहीं बनती ।पहले योग -भक्ति सिखाई अब विवाह के लिये पूछ रहे हैं ।इसी कारण स्वयं पूछ रहा हूँ बेटी ।

बावजी हुकम ! रूंधे कंठसे मीरा केवल सम्बोधन ही कर पायी ।ढलनेको आतुर आंसुओंसे भरी बड़ी -बडी आंखें उठाकर उसने अपने बड़े पिताकी और देखा ।ह्रदयके आवेगको अदम्य पाकर वह एकदमसे उठकर माता-पिता को प्रणाम किये बिना ही दौड़ती हुई कक्षसे बाहर निकल गयी ।

वीरमदेवजी नें देखा -मीराके रक्तविहीन मुखपर व्याघ्र के पंजेमें फँसी गायके समान भय, विवशता और निराशाके भाव और मरते पशुके आर्तनाद सा विकल स्वर बावजी हुकम कानोंमे पड़ा तो वे विचलित हो उठे ।वे रणमें प्रलयंकर बन कर शवों से धरती पाट सकते हैं ; निशस्त्र व्याघ्र से लड़ सकते हैं किकेक न्तु अपनी पुत्री की आँखों में विवशता नहीं देखसके ।उन्हें तो ज्ञात ही नहीं हुआ कि मीरा  बाव जी हुकम  कहते कब कक्ष से बाहर चली गई ।

बड़े पिताजी और बड़ी माँ के यूँ मीरा से सीधे सीधे ही मेवाड़ के राजकुवंर भोजराज से विवाह के प्रस्ताव पर मीरा का ह्रदय विवशता से क्रन्दन कर उठा ।वह शीघ्रता पूर्वक कक्ष से बाहर आ सीढ़ियाँ उतरती चली गई ।वह नहीं चाहती थी कि कोई भी उसकी आँखों में आँसू भी देखे ।जिसने उसे दौड़ते हुए देखा , चकित रह गया , ब्लकि पुकारा भी ,पर मीरा ने किसी की बात का उत्तर नहीं दिया ।

मीरा अपने ह्रदय के भावों को बाँधे अपने कक्ष में गई और
धम्म से पलंग पर औंधी गिर पड़ी ।ह्रदय का बाँध तोड़ कर रूदन उमड़ पड़ा - यह क्या हो रहा है मेरे सर्वसमर्थ स्वामी ! अपनी पत्नी को दूसरे के घर देने अथवा जाने की बात तो साधारण- से-साधारण , कायर-से- कायर राजपूत भी नहीं कर सकता । शायद तुमने मुझे अपनी पत्नी स्वीकार ही नहीं किया , अन्यथा . । हे गिरिधर ! यदि तुम अल्पशक्ति होते तो मैं तुम्हें दोष नहीं देती ।तब तो यही सत्य है न कि तुमने मुझे अपना माना ही नहीं .. ।न किया हो, स्वतन्त्र हो तुम ।किसी का बन्धन तो नहीं है तुम पर ।

हे प्राणनाथ ! पर मैंने तो तुम्हें अपना पति माना है.. मैं कैसे अब दूसरा पति वर लूँ ? और कुछ न सही ,शरणागत के सम्बन्ध से ही रक्षा करो.. रक्षा करो ।अरे ऐसा तो निर्बल -से निर्बल राजपूत भी नहीं होने देता ।यदि कोई सुन भी लेता है कि अमुक कुमारी ने उसे वरण किया है तो प्राणप्रण से वह उसे बचाने का , अपने यही लाने का प्रयत्न करता है ।तुम्हारी शक्ति तो अनन्त है, तुम तो भक्त -भयहारी हो । हे प्रभु ! तुम तो करूणावरूणालय हो, शरणागतवत्सल हो, पतितपावन हो, दीनबन्धु हो.. कहाँ तक गिनाऊँ ।इतनी अनीति मत करो मोहन .मत करो ।मेरे तो तुम्हीं एकमात्र आश्रय हो.. रक्षक हो.तुम्हीं सर्वस्व हो, मैं अपनी रक्षा के लिये तुम्हें छोड़ किसे पुकारूँ किसे पुकारूँ किसे ..?

जो तुम तोड़ो पिया ,मैं नहीं तोड़ू
तोसों प्रीत तोड़ कृष्ण ,कौन संग जोड़ू॥
तुम भये तरूवर, मैं भई पंखिया
तुम भये सरोवर, मैं तेरी मछिया
तुम भये गिरिवर, मैं भई चारा
तुम भये चन्दा, मैं भई चकोरा ।
तुम भये मोती प्रभु हम भये धागा
तुम भये सोना हम भये सुहागा
मीरा कहे प्रभु बृज के वासी
तुम मेरे ठाकुर मुझे तेरी दासी ।
जो तुम तोड़ो पिया , मैं नहीं तोड़ू ।
तोसो प्रीत तोड़ कृष्ण ,कौन संग जोड़ू ॥

राव दूदाजी अब अस्वस्थ रहने लगे थे ।अपना अंत समय समीप जानकर उनकी ममता मीरा पर अधिक बढ़ गयी थी ।उसके मुख से भजन सुने बिना उन्हें दिन सूना लगता।मीरा भी समय मिलते ही दूदाजी के पास जा बैठती ।उनके साथ भगवत चर्चा करती।अपने और अन्य संतो के रचे हुए पद सुनाती।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

1 टिप्पणी:

  1. 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻 बहुत ही भावुक प्रसंग है!
    🙏🏻🌹जय गिरधर गोपाल🌹🙏🏻
    🙏🏻🌹जय मीरा बाइसा🌹🙏🏻

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