शनिवार, 30 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १४

॥जय श्री राम॥

वीरकुवंरी जी एक बार फिर मीरा के तर्क के आगे चुप हो चली गई ।मीरा श्याम कुन्ज में अकेली रह गई । आजकल दासियों को भी कामों की शिक्षा दी जा रही है क्योंकि उन्हें भी मीरा के साथ चितौड़ जाना है ।मीरा ने एकान्त पा फिर आर्त मन से प्रार्थना आरम्भ की

तुम सुनो दयाल म्हाँरी अरजी ।
भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी।
या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी॥
मात पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी॥

मीरा श्याम कुन्ज में एकान्त में गिरधर के समक्ष बैठी है ।आजकल दो ही भाव उस पर प्रबल होते है याँ तो ठाकुर जी की करूणा का स्मरण कर उनसे वह कृपा की याचना करती है और याँ फिर अपने ही भाव- राज्य में खो अपने श्यामसुन्दर से बैठे बातें करती रहती है ।

मीरा गाते गाते अपने भाव जगत में खो गई -वह सिर पर छोटी सी कलशी लिए यमुना जल लेकर लौट रही है ।उसके तृषित नेत्र इधरउधर निहार कर अपना धन खोज रहे है । वो यहीं कहीं होंगे -आयेंगे -नहीं आयेंगे ..बस इसी ऊहापोह में धीरेधीरे चल रही थी कि पीछे से किसी ने मटकी उठा ली ।उसने अचकचाकर ऊपर देखा तो कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे है ।लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहर नहीं रही ।लज्जा नीचे और प्रेम उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है ।वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े ।वह चौंककर चीख पड़ी , और साथ ही उन्हें देख लजा गई ।

डर गई न ? उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़ कर कहा - चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें ।सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये । मुस्कुरा कर बोले , तुझे क्या लगा कोई वानर कूद पड़ा है क्या ? अभी पानी भरने का समय है क्या ? दोपहर में पता नहीं घाट नितान्त सूने रहते है ।जो कोई सचमुच वानर आ जाता तो ?

तुम हो न । उसके मुख से निकला ।
मैं क्या यहाँ ही बैठा ही रहता हूँ ? गईयाँ नहीं चरानी मुझे ?

एक बात कहूँ ?  मैने सिर नीचा किए हुये कहा ।
एक नहीं सौ कह , पर माथा तो ऊँचा कर ! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू । उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा ।
अच्छो -अच्छो मुख नीचो ही रहने दे ।कह, का बात है ?
तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ? बहुत कठिनाई से मैंने कहा ।
तो सखी ! तोहे मैं अप्रसन्न दीख रहयो हूँ ।
नहीं  मेरा वो मतलब नहीं था . ।सुना है . तुम प्रेम से वश में होते हो ।
मोको वश में करके क्या करेगी सखी ! नाथ डालेगी कि पगहा बाँधेगी ? मेरे वश हुये बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला ?
सो नहीं श्यामसुन्दर !
तो फिर क्या ? कब से पूछ रहो हूँ ।तेरो मोहढों (मुख) तो पूरो खुले हु नाय।एकहु बात पूरी नाय निकसै ।अब मैं भोरो- भारो कैसे समझूँगो ?
सुनो श्यामसुन्दर ! मैंने आँख मूँदकर पूरा ज़ोर लगाकर कह दिया - मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिए ।
सो कहा होय सखी ? उन्होंने अन्जान बनते हुये पूछा ।
अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी ।
सखी , रोवै मति ।उन्होंने मेरे आँसू पौंछते हुये पूछा -और ऐसो अनुराग कैसो होवे री ?
सब कहवें , उसमें अपने सुख की आशा  इच्छा नहीं होती।
तो और कहा होय ? श्यामसुन्दर ने पूछा ।
बस तुम्हारे सुख की इच्छा ।
और कहा अब तू मोकू दुख दे रही है ?ऐसा कह हँसते हुये मेरी मटकी लौटाते हुये बोले , ले अपनी कलशी ! बावरी कहीं की !
और वह वन की ओर दौड़ गये ।मैं वहीं सिर पर मटकी ठगी सी बैठी रही ।

विवाह के उत्सव घर में होने लगे- हर तरफ कोलाहल सुनाई देता था । मेड़ते में हर्ष समाता ही न था ।मीरा तो जैसी थी , वैसी ही रही । विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी ।उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगी ।

मीरा को किसी भी बात का कोई उत्साह नहीं था । किसी भी रीति रिवाज़ के लिए उसे श्याम कुन्ज से खींच कर लाना पड़ता था ।जो करा लो , सो कर देती ।न कराओ तो गिरधर लाल के वागे (पोशाकें) , मुकुट ,आभूषण संवारती , श्याम कुन्ज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती ।खाना पीना , पहनना उसे कुछ भी नहीं सुहाता ।श्याम कुन्ज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी -पड़ी रोती रहती ।

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता। किन्तु सुनने का , देखने का समय ही किसके पास है ? सब कह रहे है कि मेड़ता के तो भाग जगे है कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा ।उसके स्वागत में ही सब बावले हुये जा रहे है ।कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है ?

वह आत्महत्या की बात सोचती

ले कटारी कंठ चीरूँ कर लऊँ मैं अपघात।
आवण आवण हो रह्या रे नहीं आवण की बात ॥

किन्तु आशा मरने नहीं देती । जिया भी तो नहीं जाता , घड़ी भर भी चैन नहीं था । मीरा अपनी दासियों -सखियों से पूछती कि कोई संत प्रभु का संदेशा लेकर आये है ? उसकी आँखें सदा भरी भरी रहती,मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता ।

कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की ॥
आप न आवै लिख नहीं भेजे ,
बान पड़ी ललचावन की ।
ऐ दोऊ नैण कह्यो नहीं मानै,
नदिया बहै जैसे सावन की॥
कहा करूँ कछु बस नहिं मेरो,
पाँख नहीं उड़ जावन की ।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
चेरी भई तेरे दाँवन की॥
कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की..

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

1 टिप्पणी:

  1. 👌🏻👌🏻वाह!
    कैसी अद्भुत भक्ति है और कितना गहरा प्रेम !!!!
    सोते जागते बस श्याम की ही बातें, श्याम के ही सपने और श्याम से ही गुहार और श्याम का ही आसरा !!
    बहुत प्रेरणात्मक !!
    🙏🏻🌹जय गिरधर गोपाल🌹🙏🏻
    🙏🏻🌹जय मीरा बाईसा🌹🙏🏻

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