शनिवार, 16 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ३

॥जय श्री राम॥

महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया श्याम कुन्ज। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा ।

ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे. सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती । वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि
कौन अधिक मारक है दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था  । उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में । अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती प्रतीत हुईं ।

थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?

उन्होंने फेंट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये  ले खा । मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।

कहा नाम है तेरो ?
मीरा बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।

वे खिलखिला कर हँस पड़े । कितना मधुर स्वर है तेरो री ।

श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिश य व्या कुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया । सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फिर ह्रदय के उदगार प्रथम बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे

मेहा बरसबों करे रे ,
आज तो रमैया म्हारें घरे रे,
नान्हीं नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
सूखा सरवर भरे रे ॥
घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
मैं लियो पुरबलो वर रे ॥

पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली । मीरा अभी भी तानपुरा ले गिरधर के सम्मुख श्याम कुन्ज में ही बैठी थी । वह दीर्घ कज़रारे नेत्र , वह मुस्कान , उनके विग्रह की मदमाती सुगन्ध और वह रसमय वाणी सब मीरा के स्मृति पटल पर बार बार उजागर हो रही थी ।

मेरे नयना निपट बंक छवि अटके ।
देखत रूप मदनमोहन को
पियत पीयूख न भटके ।
बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके॥
टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके ।
मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नटके ॥

मीरा को प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आई और घुटनों के बल बैठकर धीमे स्वर में बोली जीमण पधराऊँ बाईसा ( भोजन लाऊँ )? अहा मिथुला ! अभी थोड़ा ठहर जा । मीरा के ह्रदय पर वही छवि बार बार उबर आती थी । फिर उसकी उंगलियों के स्पर्श से तानपुरे के तार झंकृत हो उठे

नन्दनन्दन दिठ (दिख) पड़िया माई,
साँ.वरो.. साँवरो ।
नन्दनन्दन दिठ पड़िया माई ,
छाड़या सब लोक लाज ,
साँवरो  साँवरो
मोरचन्द्र का किरीट, मुकुट जब सुहाई ।
केसररो तिलक भाल, लोचन सुखदाई ।
साँवरो ..साँ.वरो ।
कुण्डल झलकाँ कपोल, अलका लहराई,
मीरा तज सरवर जोऊ,मकर मिलन धाई ।
साँवरो . साँवरो ।
नटवर प्रभु वेश धरिया, रूप जग लुभाई,
गिरधर प्रभु अंग अंग ,मीरा बलि जाई ।
साँवरो . साँवरो ।

अरी मिथुला ,थोड़ा ठहर जा ।अभी प्रभु को रिझा लेने दे । कौन जाने ये परम स्वतंत्र हैं ..कब भाग निकले ? आज प्रभु आयें हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?

मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी ।लीला चिन्तन के द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी । दिन पर दिन उसके भजन पूजन का चाव बढ़ने लगा । वह नाना भाँति से गिरधर का श्रृगांर करती कभी फूलों से और कभी मोतियों से । सुंदर पोशाकें बना धारण कराती । भाँति भाँति के भोग बना कर ठाकुर को अर्पण करती और पद गा कर नृत्य कर उन्हें रिझाती । शीत काल में उठ उठ कर उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रात को जागकर पंखा झलती । तीसरे -चौथे दिन ही कोई न कोई उत्सव होता ।

नमो राघवाय

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सुंदर और अद्भुत!!
    भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा!!!
    जय हो!!
    🙏🏻🌹जय मीरा बाईसा🌹🙏🏻
    🙏🏻🌹जय गिरधर गोपाल🌹🙏🏻

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